Movie Review:  ‘रेड-2’ पहले भाग की चमक को दोहराने में नाकाम है

सात साल बाद ‘अमय पटनायक’ फिर लौटे हैं। पिछली बार की तरह भ्रष्टाचार के गढ़ में हलचल मचाने… लेकिन इस बार कहानी जितनी बड़ी है, उतनी ही बच्ची भी । 

‘रेड-2’ भ्रष्टाचार, ईमानदारी और स्टारडम के बीच उलझकर रह जाती है। अगर जगह असली नहीं हो तो वैसे भी मजा खराब हो जाता है। इस इलाके का नाम नहीं सुना होगा। यहां रितेश देशमुख की तूती बोलती है। जनता उन्हें भगवान मानती है, और वो ‘अम्मा’ (सुप्रिया पाठक) के दूध से चरण पखारते हैं- मतलब संस्कारी विलेन । इसी गांव में आता है अजय देवगन सख्त आइएएस अफसर अमय पटनायक कम और अजय देवगन ज्यादा नजर आता है। 

शाहरुख खान वाली दिक्कत अब अजय देवगन पर आन पड़ी है। कभी वो ‘सिंघम’ के मूड में लगते हैं, तो कभी ‘दृश्यम’ के नहीं लगते तो बस, अमय जैसे। पटनायक के चेहरे पर वही स्थायी गंभीरता, वही सूती कॉलर वाले कुर्ते और वही भारी-भरकम सम्वाद । अंदर से किरदार एकदम खोखला लगता है।

राजकुमार गुप्ता फिर निर्देशक की कुर्सी पर हैं। सौरभ शुक्ला भी यहां हैं। सोने की मोटी चेन और पुराने तेवर के साथ ‘ताऊजी’ जेल से

बोलते जरूर हैं, पर हर बार हंसी छीन लेते हैं। अमित सियाल फिर वही चतुर आइटी अफसर हैं और छा जाते हैं। यशपाल शर्मा को उसूलों वाले वकील का बढ़िया रोल मिला है।

वाणी कपूर हैं, जो पत्नी के किरदार में हैं। स्क्रिप्ट उन्हें दौड़ाती रहती है, कभी रसोई में भेजती है, कभी कोर्ट के बाहर खड़ा कर देती है। वो क्यों यहां हैं, इसका जवाब खुद लेखक भी नहीं दे सकते! बिना वजह का डांस नंबर तमन्ना भाटिया का है। अचानक टपकता है यह गाना तो देखने वाला सकपका जाते हैं।

पहली वाली ‘रेड’ असली घटना पर थी, वहां कुछ असलियत और सस्पेंस था ! लेकिन यहां हर सीन तयशुदा है। भारी- भरकम बैकग्राउंड म्यूजिक, लाठीधारी गुंडे, और सरकारी काफिले । फिल्म में जैसे टेम्प्लेट चला दिया गया हो… अजय की स्लो मोशन वॉक, कड़क डायलॉग और स्टाइलिश चश्मा । असली कहानी शुरू होने में देर हो जाती है, तब तक आधी फिल्म चुकी होती है।

रितेश देशमुख कमाल हैं, लेकिन दादा भाई का किरदार नाडराता है, ना असर छोड़ता है। उसे कभी मसीहा बनाना है, कभी खतरनाक विलेन । किसी एक जगह उसे ठहरने नहीं देती, सो असर खत्म हो जाता है। 

फिल्म में कुछ डायलॉग हैं जैसे ‘मैंने कब कहा मैं पांडव हूं? मैं तो पूरी की पूरी महाभारत हूं’ या ‘सरकार कोई भी चलाए, विभाग तो हमारे जैसे लोग ही चलाते हैं।’ ये पल कहानी को थोड़ी राहत और थोड़ा मजा देते हैं। क्लाइमैक्स में कुछ एक्शन है, कुछ ट्विस्ट भी, जो फिल्म को पटरी से उतरने से बचा लेते हैं।

कुल मिला कर, ‘रेड-2’ पहले भाग की चमक को दोहराने में नाकाम रहती है। पहली सफलता नहीं होती तो इसे बनाने की हिम्मत कोई नहीं करता ।

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मैंने देवी अहिल्या विश्वविद्यालय इंदौर से जनसंचार एवं पत्रकारिता में स्नातक की पढ़ाई पूरी की है। मैं पत्रकारिता में आने वाले समय में अच्छे प्रदर्शन और कार्य अनुभव की आशा कर रही हूं। मैंने अपने जीवन में काम करते हुए देश के निचले स्तर को गहराई से जाना है। जिसके चलते मैं एक सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकार बनने की इच्छा रखती हूं।

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